राजस्थान में प्रजामंडल आन्दोलन

राजस्थान में प्रजा मंडल आन्दोलन राजनीतिक जागरण एवं देश में गाँधी जी के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्र संघर्ष का परिणाम था। इसकी पृष्ठभूमि राजस्थान राज्यों में चल रहे कृषक आन्दोलन थे। कृषक आन्दोलन उस व्यापक असन्तोष के अंग थे, जो प्रचलित राजनीतिक और आर्थिक ढांचे में विद्यमान था। कृषकों ने विभिन्न आन्दोलनों के माध्यम से उस समय के ठिकानेदारों और जागीरदारों के अत्याचारों को तथा कृषि संबंध में आये विचार को स्पष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जागीरदारी व्यवस्था उस पैतृकवादी स्वरुप को छोड़कर शोषणात्मक स्वरुप ले चुकी थी। प्रचलित व्यवस्था में असन्तोष व्यापक था। इसलिए १९२० ई. के पश्चात् राजनीतिक अधिकारों और सामाजिक सुधारों से संबंधित संस्थाओं की स्थापना हुई। इन संस्थाओं ने मौलिक अधिकारों से वंचित होने की स्थिति की अधिक चर्चा की। राजस्थान के विभिन्न राज्यों में प्रजामण्डल आन्दोलन का विकास संक्षिप्त रुप से निम्न प्रकार है।

मेवाड़

किसान और भी आन्दोलन का स्वतंत्रता संग्राम से सीधा सम्बन्ध नहीं था, फिर भी ये जनचेतना के मुख्य आधार बने। इन आन्दोलनों ने ऐसी सुदृढ़ आधारशिला रखी, जिस पर प्रजामंडल आन्दोलन खड़ा हो सका। शुरुआती दौर में राष्ट्रीय कांग्रेस देशी रियासतों के प्रति उदासीन रही। परन्तु हरिपुरा अधिवेशन में कांग्रेस की नीति में परिवर्तन आया। रियासती जनता को भी अपने-अपने राज्य में संगठन निर्माण करने तथा अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन करने की छूट दे दी। उसी वर्ष (१९३८ ई. में) मेवाड़ में संगठित राजनीतिक आन्दोलन की शुरुआत हो गयी। इस नई जन-जागृति के जनक थे, बिजोलिया आन्दोलन में पथिक जी के सहायक श्री माणिक्यलाल वर्मा। २५ अप्रैल, १९३८ को वर्माजी ने उदयपुर में कार्यकर्त्ताओं की बैठक कर प्रजामंडल का विधान स्वीकृत कराया। बलवन्त सिंह मेहता, भूरेलाल और माणिक्यलाल वर्मा क्रमशः अध्यक्ष, उपाध्यक्ष तथा महामंत्री पद पर मनोनीत हुए। इस समय मेवाड़ में महाराणा भोपाल सिंह का शासन था। प्रजामंडल की स्थापना के साथ ही इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया और आन्दोलन प्रचारकों के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाहियाँ की जाने लगी। वर्मा जी को भी राज्य से निष्कासित कर दिया गया। तब, वर्मा जी ने अजमेर में मेवाड़ प्रजामण्डल का कार्यालय स्थापित किया तथा मेवाड़ में प्रजामण्डल पर प्रतिबंध हटाने की मांग की गई।

२८ सितम्बर १९३८ को प्रेमनारायण माथुर को मेवाड़ से निष्कासित करने पर प्रजामण्डल ने उदयपुर में सत्याग्रह किया। राज्य सरकार ने कार्यकर्त्ताओं को गिरफ्तार कर मेवाड़ से निकाल दिया। २ फरवरी, १९३९ को माणिक्यलाल वर्मा को मेवाड़ की सीमा में लाकर गिरफ्तार कर उन्हें यातनाएँ दी गई। गाँधी जी ने अपने पत्र हरिजन में इसकी निन्दा की। वर्मा जी को कुम्भलगढ़ किले में बन्दी रखा गया, किन्तु प्रजामण्डल द्वारा अकाल सेवा समिति की स्थापना कर राहत कार्य करने पर वर्मा को रिहा कर दिया गया और सत्याग्रह स्थगित हो गया।

वर्माजी के नेतृत्व में एक प्रजामण्डल का प्रतिनिधि मण्डल मेवाड़ के प्रधानमंत्री सर टी. विजय राघवाचार्य से मिला तथा २२ फरवरी, १९४१ को प्रजामण्डल पर प्रतिबन्ध हटा दिया गया। प्रजामण्डल की शाखाएँ राज्य भर में स्थापित की गई तथा वर्माजी की अध्यक्षता में प्रजामण्डल का प्रथम अघिवेशन उदयपुर में हुआ जिसमें आचार्य कृपलानी व श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित भी आए। अधिवेशन में मेवाड़ में उत्तरदायी शासन की स्थापना तथा जनता के प्रतिनिधियों वाली विधानसभा की माँग की गई।

द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों ने भारत को भी युद्ध में सम्मिलित कर लिया। ८ अगस्त, १९४२ को बम्बई में कांग्रेस महा समिति के अधिवेशन में गाँधी जी ने ब्रिटिश भारत के लिए नया नारा – अंग्रेजों भारत छोड़ो तथा देशी राज्यों के लिए राजा लोग, अंग्रेजों का साथ छोड़ो नारा दिया। माणिक्यलाल वर्मा मेवाड़ प्रजामण्डल के प्रतिनिधि के रुप में इसमें सम्मिलित हुए। २० अगस्त १९४२ को प्रजामण्डल की ओर से वर्माजी ने महाराणा को अंग्रेजों से नाता तोड़ने का अल्टीमेटम दिया, किन्तु उनकी गिरफ्तारी के बाद राज्यव्यापी सत्याग्रह शुरु हो गया। १९४४ में सभी कार्यकर्ता जेल से रिहा हो गये, किन्तु राजनीतिक गतिरोध बना रहा।

३१ दिसम्बर, १९४५ को उदयपुर में पं. जवाहरलाल नेहरु की अध्यक्षता में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद का अधिवेशन हुआ। मेवाड़ सरकार ने विधान निर्मात्री समिति का गठन कर प्रजामण्डल के सदस्य भी उसमें शामिल किये। समिति की रिपोर्ट के अनुसार राज्य मंत्रिमंडल में प्रजामण्डल के मनोनीत दो सदस्य मोहनलाल सुखाड़िया व हीरालाल कोठारी लिए गये। महाराणा के नए वैधानिक सलाहकार के. एम. मुंशी ने राज्य का नया विधान तैयार किया, जिसे २३ मई, १९४७ को लागू कर दिया गया। ११ अक्तूबर, १९४६ को इस विधान में संशोधन किए गए। ७ मार्च, १९४८ को महाराणा ने प्रजामण्डल की माँग को सिद्धान्ततः स्वीकार कर लिया। नए प्रधानमंत्री सर रामामूर्ति ने इसमें सहयोग दिया। प्रजामण्डल ने प्रधानमन्त्री पद के लिए प्रो. प्रेमनारायण माथुर को नामजद किया, जिसे स्वीकार कर लिया गया। ११ अप्रैल को महाराणा ने राजस्थान यूनियन में मेवाड़ के विलय को स्वीकार कर लिया। १८ अप्रैल, १९४८ को पं. नेहरु ने उदयपुर में नवनिर्मित संयुक्त राजस्थान का उद्घाटन किया। महाराणा राजप्रमुख बने तथा माणिक्यलाल वर्मा प्रधानमंत्री बन गये।

 

मारवाड़ (जोधपुर)

जयनारायण व्यास के नेतृत्व में मारवाड़ हितकारिणी सभा ने जोधपुर में उत्तरदायी शासन की माँग की तथा दो पुस्तकों- जैसे मारवाड़ की अवस्था और पोपनबाई की पोल प्रकाशित की, जिसमें राज्य सरकार की आलोचना की गई थी। जयनारायण व्यास व आनन्दराज सुराणा को बन्दी बनाकर राज्य सरकार ने दमनचक्र चलाया। १९३१ में इन नेताओं को रिहा कर दिया गया। सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ होने पर इन नेताओं ने जोधपुर युवक लीग का गठन किया और स्वदेशी का प्रचार व हड़तालें कीं। नेताओं को पुनः बन्दी बना कर मारवाड़ हितकारिणी सभा को अवैध घोषित कर दिया गया।

डॉ. एम. एस. जैन के अनुसार – इस वातावरण में भी १९३४ में प्रजामण्डल की स्थापना की गई। इसका लक्ष्य राज्य में उत्तरदायी प्रशासन की स्थापना और राज्य में लौकिक अधिकारों की रक्षा करना था। ए.आई.एस.पी.सी. के अध्यक्ष होने के नाते जवाहर लाल नेहरु मार्च, १९३६ में राज्य में राजनीतिक स्थिति की जानकारी प्राप्त करने के लिए जोधपुर आए। अपने सार्वजनिक भाषण में उन्होंने राज्य की जनता को नैतिक समर्थन दिया और राज्य के संघर्ष को अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध भारतीय स्वाधीनता संघर्ष का एक अंग घोषित किया। सन् १९३८ में हरिपुरा काँग्रेस अधिवेशन में पारित एक प्रस्ताव के अनुसार अब देशी के बाद से रियासतों में उत्तरदायी सरकारों की स्थापना हेतु विशुद्ध राजनीतिक संगठन बनने लगे। १६ मई १९३८ को जोधपुर के सार्वजनिक कार्यकर्त्ताओं ने मारवाड़ लोक परिषद की नींव डाली। इस संस्था का उद्देश्य था, महाराजा जोधपुर की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना।

फरवरी, १९३९ में जयनारायण व्यास पर राज्य सरकार ने सारे प्रतिबन्ध हटा लिए और उन्हें राज्य में प्रवेश की इजाजत दी। उन्हें राज्य सरकार द्वारा गठित सलाहकार मण्डल का सदस्य बनाया गया। इसी वर्ष अकाल के समय लोक परिषद् राहत कार्य करने के कारण लोकप्रिय हुई। किन्तु इससे भयभीत होकर राज्य सरकार ने पुनः गैर कानूनी घोषित कर, इसके कार्यकर्त्ताओं को बन्दी कर दमनकारी नीति अपनाई, जिसकी गाँधी जी ने भी हरिजन में भत्र्सना की। जसवन्तराज मेहता के प्रयास से लोकपरिषद् व सरकार के बीच समझौता हो गया। जोधपुर में नगरपालिका के चुनावों में लोक परिषद् का बहुमत हो गया और व्यासजी अध्यक्ष चुने गए। सितम्बर १९४१ में सलाहकार परिषद के चुनावों का लोकपरिषद् ने बहिष्कार कर प्रधानमंत्री डोनाल्डफील्ड को हटाकर उत्तरदायी सरकार की माँग की व आन्दोलन शुरु कर दिया। सरकार ने परिषद् के कार्यकर्ताओं को बन्दी बना लिया।

९ अगस्त १९४२ को भारत छोड़ो आन्दोलन छिड़ जाने पर, मारवाड़ में भी आन्दोलन तेज हो गया। सरकार ने आन्दोलनकारियों को बन्दी बनाया। व्यास जी को २८ मई, १९४४ को जेल से रिहा कर दिया। १९४७ में महाराजा उम्मेद सिंह की मृत्यु के बाद हनुवन्त सिंह नवाब भोपाल व धौलपुर नरेश से मिल कर जोधपुर को पाकिस्तान में मिलाना चाहते थे, जिसके लिए जिन्ना रियासत देना चाहता था। मेवाड़ के महाराणा ने पाकिस्तान में मिलने की हनुवन्त सिंह की पेशकश ठुकरा देने पर, भारतीय संघ में शामिल होना स्वीकार किया एवं Instrument of Accession पर हस्ताक्षर कर दिए। जोधपुर पहुँच कर महाराजा ने सामन्तों का अपना मंत्रिमंडल बनाया, जिसका जोधपुर की जनता ने प्रबल विरोध किया। अंततः जयनारायण व्यास के नेतृत्व में मंत्रिमण्डल बना, जिसमें लोक परिषद् का बहुमत था। ३० मार्च, १९४९ को जयपुर में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने राजस्थान यूनियन का उद्घाटन किया, जिसमें जोधपुर का विलय हो गया।

 

जयपुर

जयपुर राज्य में जनजागृति का आरम्भ अर्जुनलाल सेठी द्वारा किया गया था। सेठ जमनालाल बजाज ने (जो सीकर के निवासी थे), १९२६ में जयपुर में चर्खा संघ की स्थापना की, जिसके कार्यकर्त्ताओं ने राजनीतिक आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया। बी. एल. पानगड़या के शब्दों में सन् १९३६-३७ में जयपुर राज्य प्रजा मण्डल का पुनगर्ठन हुआ। इस कार्य के लिए वनस्थली से हीरालाल शास्री को आमन्त्रित किया गया और उन्हें प्रजा मण्डल का प्रधानमंत्री बनाया गया। प्रजामण्डल के सभापति सुप्रसिद्ध एडवोकेट श्री चिरंजीलाल मिश्र बनाए गये। १९४८ में प्रजा मण्डल का पहला अधिवेशन जयपुर में हुआ। इसके अध्यथ सेठ जमनालाल बजाज थे। १ फरवरी १९३८ को बजाज को गिरफ्तार करने पर, प्रजामण्डल ने संघर्ष छेड़ दिया, प्रमुख कार्यकर्त्ता गिरफ्तार कर लिए गए। ७ अगस्त, १९३९ को समझौता हुआ, जिसके अनुसार प्रजामण्डल की नागरिक अधिकारों की माँग स्वीकार कर ली गई व सभी कार्यकर्त्ता जेल से रिहा कर दिये गये।

८-९ अगस्त, १९४२ को भारत छोड़ो आन्दोलन आरम्भ हो गया। हीरालाल शास्री व जयपुर के प्रधानमंत्री मिर्जा इस्माइल में एक अलिखित समझौता हो गया, जिसके अनुसार शास्री ने भारत छोड़ो आन्दोलन में जयपुर सम्मिलित नहीं किया, किन्तु प्रजामण्डल के एक वर्ग ने जिसके नेता बाबा हरिश्चन्द्र, रामकरण जोशी, दौलतराम भंडारी व हंस डी. राय थे। आजाद मोर्चा कायम कर आन्दोलन चलाया और बन्दी बने, किन्तु जयपुर महाराजा ने उन्हें रिहा कर विधान सभा व प्रतिनिधि सभा की स्थापना की। जयपुर में पी.ई.एन. काँफ्रुेंस हुई, जिसमें पं. नेहरु भी आए, जिनके आग्रह पर आजाद मोर्चा भंग कर दिया गया। १५ मई, १९४६ को प्रजामण्डल के प्रतिनिधि के रुप में देवी शंकर तिवारी को मंत्रिमंडल में सम्मिलित किया गया। २७ मार्च, १९४७ को नया मंत्रिमंडल बना, जिसमें ७ सदस्यों में से ४ सदस्य प्रजामण्डल के व २ जागीरदार वर्ग के थे।

नवम्बर, १९४८ में जयपुर महाराजा राजस्थान में मिलने को सहमत हो गये, जिसकी राजधानी जयपुर व महाराजा राज प्रमुख बने। श्री हीरालाल शास्री पुनर्गठित राजस्थान के मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए। ७ अप्रैल, १९४९ को जयपुर राजस्थान का एक अंग बन गया।

 

बीकानेर

१२ जुलाई, १९४२ को बीकानेर के एडवोकेट रघुवर दयाल गोयल ने राज्य प्रजा-परिषद् की स्थापना कर राजनीतिक आन्दोलन शरु किया। परिषद् का उद्देश्य महाराजा की छाया में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना था। महाराजा गंगा सिंह ने १९४२ में गोयल को गिरफ्तार कर निर्वासित कर दिया। इस पाबंदी को तोड़कर बीकानेर में प्रवेश करने पर गोयल को पुनः गिरफ्तार कर पुनः बंदी बनाया। दिसम्बर, १९४२ में बीकानेर में झण्डा सत्याग्रह हुआ, जिसमें प्रजा परिषद् के कार्यकर्त्ताओं को दण्डित किया गया।

गंगा सिंह के बाद नये महाराजा शार्दूलसिंह ने फरवरी, १९४३ में राजनीतिक बन्दियों को रिहा कर दिया, किन्तु प्रजा परिषद् को मान्यता न देकर गोयल को बन्दी बना लिया व ११ जून, १९४५ को निर्वासित कर दिया। जून, १९४५ में दूध बखारा किसान आन्दोलन चला, जिसके आन्दोलनकारियों को बन्दी बनाया गया। २५ जून, १९४६ को रघुवर दयाल गोयल को पुनः बन्दी बनाया गया। ३० जून को रायसिंह नगर में प्रजा परिषद् का सम्मेलन हुआ। ३१ अगस्त, १९४६ को महाराजा ने राज्य में शासन सुधार हेतु दो समितियाँ संविधान व निर्वाचन क्षेत्र बनाने हेतु नियुक्त की। १६ मार्च, १९४८ को प्रजा परिषद् व राज्य सरकार के बीच समझौता हो गया, किंतु परिषद् द्वारा समझौता ठुकराने के बाद गतिरोध हो गया। ७ अगस्त १९४७ को महाराजा ने बीकानेर के राजस्थान में विलय पर हस्ताक्षर कर दिये। ३० मार्च, १९४९ को बीकानेर वृहद् राजस्थान का अंग बन गया।

 

अलवर

१९३८ में अलवर प्रजामण्डल की स्थापना हुई। भोलानाथ मास्टर ने राज्य सेवा त्याग कर प्रजामण्डल का कार्य किया। द्वितीय महायुद्ध में राज्य में युद्ध के लिए चंदे एकत्रित करने का विरोध किया गया व फरवरी, १९४६ में खेड़ा मंगलसिंह ने जमींदारों के जुल्म के विरुद्ध प्रजामण्डल का सम्मेलन किया। आंदोलन चला व कार्यकर्त्ता बंदी बनाए गए। हीरालाल शास्री की मध्यस्थता से समझौता हुआ व बंदी रिहा किए गए।

अलवर में सांप्रदायिक दंगे हुए, जिसके लिए अलवर के प्रधानमंत्री एन.वी.खरे, हिंदू महासभा से संबंधित होने के कारण उत्तरदायी थे। ३० फरवरी, १९४८ को महात्मा गाँधी की हत्या के षड्यंत्रकारियों को अलवर में संरक्षण दिए जाने पर, ७ फरवरी, १९४८ को अलवर के महाराणा तेजसिंह प्रधानमंत्री खरे को दिल्ली में भारत सरकार ने रोक लिया व प्रशासन भारत सरकार ने अपने हाथ में ले लिया। भरतपुर में भी ऐसा ही किया गया। १८ मार्च, १९४८ को मत्स्य संघ का निर्माण कर अलवर, भरतपुर, करौली व धौलपुर को उसमें सम्मिलित किया गया।

 

भरतपुर

१९३८ में भरतपुर में किशनलाल जोशी, गोपीलाल यादव, मास्टर आदित्येंद्र व युगलकिशोर चतुर्वेदी ने प्रजा मण्डल की स्थापना की। फतेहपुर सीकरी में पूर्वी राजस्थान का राजनीतिक सम्मेलन हुआ व राज्य सरकार को प्रजा मण्डल को मान्यता देने का अल्टीमेटम दिया। अप्रैल, १९३९ में सत्याग्रह किया गया, जिसमें कार्यकर्त्ता बंदी बनाए गए। २५ अक्टूबर, १९३९ को समझौता हुआ व प्रजा मण्डल का नाम बदल कर प्रजा-परिषद् रखा गया। दिसम्बर, १९४० में जय नारायण व्यास की अध्यक्षता में भरतपुर में राजनीतिक सम्मेलन हुआ। अगस्त, १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन के साथ ही राज्य में आंदोलन हुआ,जिसमें पुनः कार्यकर्त्ता गिरफ्तार हुए, किंतु बाढ़ के राहत कार्यों में प्रजापरिषद् ने सक्रिय सहयोग दिया। भरतपुर के दीवान के.पी.एस मैनन ने निवार्चित सदस्यों की बहुमत वाली विधानसभा बनाना स्वीकार कर, बंदी नेताओं को रिहा कर दिया। १९४३ में प्रतिनिधि समिति के चुनावों में परिषद् के सदस्य बहुमत में चुने गए, जिसके जुगल किशोर चतुर्वेदी नेता चुने गए, किंतु गतिरोध होने पर १९४५ में परिषद् ने प्रतिनिधि समिति का बहिष्कार कर दिया। १९४७ में बेगार विरोधी आंदोलन चला, किंतु १५ अगस्त के पूर्व सभी बंदी रिहा कर दिए गए। गाँधी हत्या कांड के कारण भरतपुर का शासन फरवरी, १९४८ में भारत सरकार ने अपने हाथ में ले लिया। १८ मार्च, १९४८ को भरतपुरमत्स्य संघ में सम्मिलित हो गया व ३० मार्च, १९४९ को वृहद् राजस्थान का अंग बन गया।

 

धौलपुर

धौलपुर में जन जागृति का अग्रदूत यमुना प्रसाद वर्मा था, जिसने आचार-सुधारणी सभा व आर्य समाज की स्थापना की। १९१८ में आर्य समाज ने सत्याग्रह किया। धौलपुर नरेश राणा उदयभानु सिंह नरेंद्र मण्डल का प्रभावशाली सदस्य व प्रतिक्रियावादी था। उसने जोधपुर नरेश हनुमंत सिंह को पाकिस्तान में मिलने को उकसाया, किंतु लॉर्ड माउण्ट बेटन और वी.पी.मेनन ने इस षडयंत्र को विफल कर दिया। २८ मार्च, १९४८ को धौलपुर मत्स्य संघ में शामिल हो गया।

 

करौली

मुँशी त्रिलोक चंद्र माथुर ने १९३८ में करौली में राज्य सेवक संघ तथा स्थानीय काँग्रेस की स्थापना की। १९३९ में माथुर ने प्रजा मण्डल की स्थापना की। १९४२ में अगस्त-क्रांति में कल्याण प्रसाद गुप्ता को बंदी बनाया गया। १९४६ में प्रजा मण्डल सक्रिय हुआ। करौली के शासक गणेशपाल ने १८ मार्च, १९४८ में मत्स्य संघ में करौली को सम्मिलित कर दिया तथा १५ मई, १९४९ को राजस्थान में विलय करा दिया।

 

बूँदी

बूँदी बरड़ क्षेत्र में मेंवाड़ में बिजौलिया और बेंगू किसान आंदोलन का प्रभाव हुआ। पं. नानूराम शर्मा के नेतृत्व में १९२६ में बैठ बेगार, लाग-बाग और लगान की ऊँची दरों का विरोध आंदोलन चला। नित्यानंद सागर को जन- आंदोलन में भाग लेने पर बूँदी के शासक रघुवीर सिंह ने राज्य से निर्वासित किया व उसकी संपत्ति जब्त कर ली। नित्यानंद को १९४२ के राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने के कारण बूँदी जेल में ४ वर्ष बंदी रखा गया। नित्यानंद के पुत्र ॠषिदत्त व पत्नी सत्यभामा भी राष्ट्रीय आंदोलनों में भाग लेते थे।

१९४४ में हरिमोहन माथुर की अध्यक्षता में बूँदी लोक परिषद् की स्थापना हुई, जिसके मंत्री बृज सुंदर शर्मा बने। १९४५ में बूँदी शासक ईश्वरसिंह की मृत्यु के बाद बहादुरसिंह गद्दी पर बैठे, जिन्होंने १९४६ में नित्यानंद की निर्वासन आज्ञा रद्द कर दी व विधान परिषद् व लोकप्रिय मंत्रिमण्डल बनाने की घोषणा की, किंतु परिषद् ने मंत्रिमण्डल में अन्य वर्ग के लोगों के लिए जाने के कारण सम्मिलित होने से इंकार कर दिया। मार्च, १९४८ में बूँदी का विलय संयुक्त राजस्थान में हो गया।

 

कोटा

कोटा के क्रांतिकारी ठा. केसरी सिंह बारहट व उनके भाई जोरावरसिंह व पुत्र प्रतापसिंह का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। १९३४ में पं. नानूराम शर्मा, अकिंभत हरि हमसुखलाल मित्तल ने हाड़ौती प्रजामण्डल की स्थापना की। १९३८ में कोटा राज्य प्रजामण्डल की स्थापना हुई, जिसका प्रथम अधिवेशन नयनूराम शर्मा की अध्यक्षता में माँगरौल में हुआ। १९४१ में नयनूराम शर्मा की हत्या हो जाने के बाद प्रजामण्डल का नेतृत्व अभिन्न हरि ने किया।

सन् १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में कोटा के अभिन्न हरि, शंभूदयाल सक्सेना वेणी माधव, बागमल बाँठिया और मोतीलाल जैन गिरफ्तार हुए। जन- आंदोलन और भड़का तथा जनता ने शहर कोतवाली पर राष्ट्रीय झंडा फहरा दिया। पुलिस को बैरकों में बंद कर दिया व नगर पर जनता का अधिकार हो गया। कोटा महाराव द्वारा दमन न करने के आश्वासन पर जनता ने महाराव को शासन सौंपा। प्रजा मण्डल के कार्यकर्त्ता रिहा कर दिए। देश की स्वतंत्रता के बाद १९४७ में महाराव ने लोकप्रिय मंत्रिमण्डल बनाने का निर्णय लिया। २५ मार्च, १९४८ को कोटा संयुक्त राजस्थान में विलीन हो गया, जिसके राज प्रमुख कोटा के महाराव भीमसिंह बने तथा शाहपुरा के गोकुललाल असावा प्रधानमंत्री बने, किंतु मेवाड़ के संयुक्त राजस्थान में शामिल होने पर राजप्रमुख महाराणा भूपालसिंह बने व कोटा नरेश उपराजप्रमुख बने तथा राजधानी उदयपुर व मुख्यमंत्री माणिक्यलाल वर्मा बने। कोटा के अभिन्न हरि मंत्रिमण्डल में लिए गए। २९ मार्च, १९४९ को वृहत् राजस्थान में कोटा का अन्य राज्यों के साथ विलय हो गया, जिसकी राजधानी जयपुर बनी।

 

डूँगरपुर

डूँगरपुर में भोगीलाल पाण्ड्या ने १९४४ में प्रजा मण्डल का गठन किया। अप्रैल, १९४६ में पाण्ड्या को जन- आंदोलन में भाग लेने पर बंदी बनाया गया। अन्य कार्यकर्त्ता में हरिदेव जोशी व गौरी शंकर उपाध्याय को राज्य से निष्कासित कर दिया गया, जिसके कारण राज्य में हड़ताल हुई व पाण्ड्या ने जेल में आमरण अनशन किया। पाण्ड्या को रिहा कर दिया गया व अन्य के निष्कासन आदेश रद्द किए गए। जून, १९४७ में पुनः आंदोलन करने पर पाण्ड्या गिरफ्तार हुए, किन्तु भीलों के आंदोलन करने पर उन्हें छोड़ दिया गया। महाराव लक्ष्मणसिंह ने लोकप्रिय मंत्रिमण्डल बनाया, जिसमें प्रजामण्डल के प्रतिनिधि गौरी शंकर उपाध्याय व भीखा भाई मंत्री बने। बाद में डूँगरपुर का विलय संयुक्त राजस्थान में हो गया।

 

बाँसवाड़ा

१९४४ में बाँसवाड़ा के शासक चंद्रवीर सिंह व दीवान डॉ. मोहन सिंह मेहता थे। प्रजा मण्डल की स्थापना धूलजी भाई व भूपेंद्र त्रिवेदी के प्रयत्नों से हुई, जिसने उत्तरदायी शासन की माँग की। राज्य ने कुछ शासन-सुधारों की घोषणा की व धारा-सभा के चुनाव कराए, जिसके प्रजा मण्डल के प्रतिनिधि बहुमत से जीते। प्रजामण्डल ने अपनी बहुमत वाली सरकार बनाने हेतु आंदोलन चलाया। अंत में महारावल ने प्रजा मण्डल की माँग स्वीकृत कर १८ अप्रैल, १९४८ को भूपेंद्र त्रिवेदी को मुख्यमंत्री बनाया। मार्च, १९४९ में महारावल ने संयुक्त राजस्थान के विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए।

 

प्रतापगढ़

१९३१ में प्रतापगढ़ में स्वदेश आंदोलन चला, जिसके कार्यकर्त्ताओं मास्टर रामलाल, राधा वल्लभ सोमानी व रतनलाल को बंदी बनाया गया। १९३६ में ठक्कर बघा की प्रेरणा से राज्य में अमृतलाल पायक ने हरिजन सेवा समिति की स्थापना की। पायक ने ही १९४६ में प्रजा मण्डल की स्थापना की। देश के आजाद होने के बाद प्रतापगढ़ में लोकप्रिय मंत्रिमण्डल बना, जिसमें प्रजामण्डल के प्रतिनिधि पायक मंत्री बने। अप्रैल, १९४८ में प्रतापगढ़ संयुक्त राजस्थान का अंग बन गया।

 

कुशलगढ़

बाँसवाड़ा के दक्षिण- पश्चिम में एक ठिकाना (चीफशिप) कुशलगढ़ था, जिसके कार्यकर्त्ता श्री डोशी, भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के कारण जेल गए। उन्होंने १९४० में प्रजामण्डल की स्थापना की। १९४६ में पन्नालाल त्रिवेदी प्रजा मण्डल के अध्यक्ष बने। १९४८ में कुशलगढ़ में लोकप्रिय मंत्रिमण्डल बना और १९४९ में संयुक्त राजस्थान का अंग बन गया।

 

शाहपुरा

शाहपुरा के शासक उम्मेदसिंह के समय राज्य में राष्ट्रीय आंदोलन चला। १९३८ में माणिक्यलाल वर्मा ने शाहपुरा में प्रजामण्डल की स्थापना की। १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन के समय प्रजा मण्डल ने शासक को अंग्रेजों से संबंध तोड़ने की माँग की। रमेशचंद्र ओझा, लादूराम व्यास व लक्ष्मीनारायण काँटिया बंदी बनाए गए। शाहपुरा के प्रो. गोकुललाल असादा पहले से ही अजमेर में बंदी थे। १९४६ में बन्दियों को रिहा कर शाहपुरा के शासक सुदर्शनदेव ने गोकुललाल असावा की अध्यक्षता में नया विधान तैयार कराया, जिसे १४ अगस्त, १९४७ को राज्य में लागू कर दिया गया व असावा के नेतृत्व में लोकप्रिय सरकार की स्थापना की। पहले शाहपुरा व किशनगढ़ को अजमेर में मिलाने का निर्णय किया गया था, किंतु जनता के विरोध के कारण उसे रद्द कर २५ मार्च, १९४८ में शाहपुरा का विलय संयुक्त राजस्थान में हो गया।

 

किशनगढ़

१९४७ में किशनगढ़ की गद्दी पर सुमेरसिंह बैठा। देश आजाद होने के पूर्व ही किशनगढ़ महाराजा ने भारतीय संघ में सम्मिलित होने के संधि पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। पहले किशनगढ़ को अजमेर में मिलाने का प्रस्ताव था, किंतु १५ अप्रैल, १९४८ को उसका विलय वृहद् राजस्थान में हो गया।

 

जैसलमेर

जैसलमेर में १९३८ में शिवशंकर गोपा, जीतमल जगाशी, मदनलाल पुरोहित, मदनलाल जगाणी व लाल चंद्र जोशी ने लोक-परिषद् की स्थापना की। राज्य के शासक ने दमन-चक्र चलाया। राज्य में निर्वासित सागरमल गोपा जब अपने पिता की मृत्यु के बाद जैसलमेर आए, तो उन्हें बंदी बना कर जेल में यातनाएँ दी गई, जिसके कारण ४ अप्रैल, १९४६ को उनकी मृत्यु हो गई। अ.भा.देशी राज्य लोक परिषद् के अध्यक्ष पं.नेहरु ने इस घटना की कटु आलोचना की तथा जोधपुर लोक परिषद् के कार्यकर्त्ता जयनारायण व्यास जैसलमेर आए, जिससे प्रजामण्डल का आंदोलन तेज हुआ।

अगस्त, १९४७ में महारावल जैसलमेर पाकिस्तान में शामिल होने के लिए जोधपुर के शासक हनुवंतसिंह के साथ जिन्ना से बात करने दिल्ली गए, किंतु वी.पी.मेनन व लॉर्ड माउण्ट बेटन ने इस षड्यंत्र को विफल कर दिया और ३० मार्च, १९४९ को जैसलमेर का विलय राजस्थान में हो गया।

 

सिरोही

सिरोही के कुछ कार्यकर्त्ताओं ने बंबई में १९३४ में प्रजा मण्डल की स्थापना की, जिसका उद्देश्य सिरोही के शासक स्वरुप रामसिंह की छत्रछाया में एक उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना था। २३ जनवरी, १९३९ को गोकुल भाई भ ने सिरोही में प्रजा मंडल की स्थापना की और आंदोलन चलाया, जिसमें कार्यकर्त्ता बंदी बनाए गए। १९४२ की अगस्त क्रांति में भी सिरोही में आंदोलन चला। १९४६ में तेजसिंह सिरोही की गद्दी पर बैठा, किंतु जनता द्वारा आंदोजन करने पर अभयसिंह को गद्दी पर बैठाया गया। ५ अगस्त, १९४७ को आबू पर्वत सिरोही को वापस लौटा दिया गया और मंत्रिमण्डल में प्रजामण्डल का प्रतिनिधि जवाहरमल सिंधी को शामिल किया गया।